ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवांस्तदा॥२॥
अर्थ – उस समय श्री रामचंद्र जी के युद्ध से थक कर और चिंतित (चिंता इस बात की है कि मैं अपना ईश्वर प्रकट किए बिना किस प्रकार रावण का वध करूं) रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण को युद्ध करने के लिए सामने खड़ा देख देवताओं सहित इस युद्ध को देखने के लिए आए हुए ऋषि श्रेष्ठ भगवान अगस्त्य जी श्री रामचंद्र जी के निकट जाकर बोले ।
राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥३॥
अर्थ – हे वत्स! सबके हृदय में रमण करने वाले हे महाबाहो! हे राम! जिस स्त्रोत के पाठ करने से तुम युद्ध में समस्त अपने शत्रुओं को जीत सको उस वेदवत नित्य और गोपनीय आदित्य स्त्रोत को मैं बताता हूं तुम सुनो l
आदियहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षय्यं परमं शिवम्॥४॥
अर्थ – आदित्य ह्रदय स्त्रोत वेद की तरह नित्य (सदा रहने वाला) है इसका पाठ करने से यह पाठ करने वाले के पुण्य को बढ़ाने वाला है समस्त शत्रुओं का नाश करने वाला है विजयप्रद(इसके पाठ से सदा विजय की प्राप्ति होती है) है नित्य पाठ करने से यह पाठ करने वाले को अक्षय फल देने वाला है और परम कल्याण करने वाला है अथवा परम पवित्र है।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्॥५॥
अर्थ – यह सर्व मंगलों का भी मंगल करने वाला और समस्त पापों का नाश करने वाला है यह चिंता और शोक अथवा व्याधि को मिटाने वाला और दीर्घायु करने वाला है अर्थात निर्दिष्ट आयु को बढाने वाला है और पाठ करने योग्य स्त्रोतों में यह सर्वश्रेष्ठ है।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥६॥
अर्थ – तुम सुवर्ण की तरह श्रेष्ठ किरणों वाले, पूर्ण बिम्ब से सदा उदय होने वाले (चंद्रमा की तरह घटने बढ़ने वाले नहीं), सुर असुर से पूज्य, अपने प्रकाश से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले(विवस्वन्तं) भुवनेश्वर (वर्षा और गर्मी में समस्त भुवनों के नियंता) भास्कर अर्थात सूर्य भगवान को तुम आदित्य हृदय स्त्रोत के पाठ से प्रसन्न करो।
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥७॥
अर्थ – क्योंकि सूर्य भगवान समस्त देवताओं की आत्मा(“सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च”) रूप बड़े तेजस्वी हैं और अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके यह देवाताओं और असुरों का तथा संपूर्ण लोकों का अपनी किरणों द्वारा पालन करते हैं।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥८॥
अर्थ – ये ही ब्रह्मा है, ये ही विष्णु है और ये ही शिव है, ये ही स्कंध है, ये ही प्रजापति हैं, ये ही इंद्र है, ये ही कुबेर है, ये ही मृत्यु है, ये ही यम है, ये ही चंद्रमा और वरुण है
पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥९॥
अर्थ – ये ही पितर ,ये ही वसु,ये ही साध्य,ये ही अश्वनीकुमार, ये ही मरुत,ये ही मनु,ये ही वायु,ये ही अग्नि और ये ही शरीरस्थ प्राण वायु हैं। ये सूर्य ही ऋतुओं के उपादान कारक होने से ऋतुकर्ता भी हैं।
सूर्य की नामावली
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥१०॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तान्ड अम्शुमान्॥११॥
अर्थ – आदित्य(अदिति पुत्र) सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य(सर्व व्यापक),खग(आकाश में विचरने वाले) पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान(प्रकाशमान), सुवर्णसदृश,भानु(प्रकाशक), दिवाकर (रात्रि का अंधकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्र्व(दिशाओं में व्याप्त अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्त्रार्चि(हजारों करणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़ों वाले), मरीचिमान्(किरणों से सुशोभित शोभित), तिमिरोन्मथन (अंधकार का नाश करने वाले) शंभु (कल्याण के उद्गम स्थान) त्वष्टा(भक्तों का दुख दूर करने अथवा जगत का संघार करने वाले), मार्ताण्ड (ब्रह्मांड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान (किरणों को धारण करने वाले)।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः॥१२॥
अर्थ – हिरण्यगर्भ(ब्रह्मा),शिशिरस्तपन, भास्कर, रवि(सब की स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ(आदमी को घर में धारण करने वाले), अदिति-पुत्र,शङ्ख,शिशिरनाशन।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुस्सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥१४॥
अर्थ – व्योमनाथ, तमोभेदी, ऋग-यजु सामपारग,धनवृष्टि, जल को उत्पन्न करने वाले आकाश नीति विवेक से चलने वाले आतपी (धाम उत्पन्न करने वाले), मंडली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु ( मौत के कारण), पिङ्गल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व, महातेजा,रक्त (लाल रंग वाले), सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण)।
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते॥१५॥
अर्थ – नक्षत्रग्रहताराधिप(नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी),विश्वभावन(जगत की रक्षा करने वाले), तेजों में सबसे बढ़कर तेजस्वी,द्वादशात्मा(12 स्वरूपों में अभिव्यक्त)।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥१६॥
अर्थ – हे पूर्वगिरी-उदयाचल और पश्चिमगिरी-अस्ताचलवर्ती आपको प्रणाम है।हे ग्रह नक्षत्रों के स्वामी और से दिनाधिप (दिन के स्वामी) आपको प्रणाम है।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्राम्शो आदित्याय नमो नमः॥१७॥
अर्थ – आप जय स्वरूप कथा विजय और कल्याण के दाता हैं । आप के रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। सहस्त्र ओं किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य आपको बारंबार प्रणाम है।हे आदित्य आपको प्रणाम है।
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥१८॥
अर्थ – हे उग्र(आप भक्तों के लिए भयंकर )हे वीर(शक्ति संपन्न) हे सारंग(शीघ्र गामी) आपको प्रणाम है हे पद्मप्रबोध(कमलों को विकसित करने वाले) हे प्रचंड तेज धारी मार्तण्ड आपको प्रणाम है।
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥१९॥
अर्थ – हे ब्राह्मन हे ईशान हे अच्युत हे ईश हे सूर्य से आदित्य हे भास्वन हे सर्वभक्ष हे रौद्रवपु(रौद्र रूप धारण करने वाले) आपको प्रणाम है।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥२०॥
अर्थ – आप अज्ञान और अंधकार के नाशक जड़ता एवं शीतके निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, संपूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देव स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।
तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे॥२१॥
अर्थ – आपकी प्रभा तपाई हुए स्वर्ण के समान है आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं तम के नाशक प्रकाश स्वरूप और जगत के साथी हैं, आपको नमस्कार है।
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥२२॥
अर्थ – रघुनंदन! ये भगवान सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥२३॥
अर्थ – यह सब भूतों में अंतर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं (यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं।
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥२४॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५॥
पूजसस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥२६॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥२७॥
अर्थ – संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएं होती हैं उन सब का फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं। राघव! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्य देव का कीर्तन करता है उसे दुख नहीं भोगना पड़ता इसलिए तुम एकाग्र चित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो । इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से कोई भी युद्ध (समस्या) पर विजय प्राप्त कर सकता है । महाबाहो! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आए थे उसी प्रकार चले गये।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥३०॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं
मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसम्क्षयं विदित्वा
सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥३१॥
अर्थ – उनका उपदेश सुनकर महा तेजस्वी श्री रामचंद्र जी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध चित्र से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया। उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा रघुनंदन अब जल्दी करो।