प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो |
करुणा स्तोत्र बहे दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो ||1||
यह अनंत बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो |
ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनंत बल दो मुझको ||2||
सुख दुःख बैरी बन्धु वर्ग में, कांच कनक में समता हो |
वन उपवन प्रासाद कुटी में, नहीं खेद नहीं ममता हो ||3||
जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ |
वह सुंदर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ||4||
एकेंद्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो |
शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ||5||
मोक्ष मार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से |
विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावे सद्भावों से ||6||
चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु! मैं भी आदि उपांत |
अपनी निंदा आलोचन से, करता हूँ पापों को शांत ||7||
सत्य अहिंसा अदिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया |
व्रत विपरीत प्रवर्तन करके, शीलाचरण विलीन किया ||8||
कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया |
पी-पीकर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन आया ||9||
मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया |
परनिंदा गाली चुगली जो, मुंह पर आया वमन किया ||10||
निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे |
निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ||11||
मुनि चक्री शक्री में हिय में, जिस अनंत का ध्यान रहे |
गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे ||12||
दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये |
परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे ||13||
जो भव दुःख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान |
योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान ||14||
मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत |
निष्कलंक त्रैलोक्यदर्शी वह, देव मम हृदय समीप ||15||
निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे |
शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ||16||
देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म कलंक विहीन विचित्र |
स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र ||17||
कर्म कलंक अछूत न जिसका, कभी छु सके दिव्य प्रकाश |
मोह तिमिर का भेद चला जो, परम शरण मुझको वह आप्त ||18||
जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश |
स्वयं ज्ञानमय स्व-पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त ||19||
जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ |
आदि अंत से रहित शांत शिव, परम शरण मुझको वह आप्त ||20||
जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव |
भय विषाद चिंता नहीं जिनको, परम शरण मुझको वह देव ||21||
तृण चौकी शिल शैल शिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन |
संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के आसन ||22||
इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम |
हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम ||23||
बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं |
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें ||24||
अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास |
जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ||25||
अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है |
जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ||26||
तन से जिसका ऐक्य नहीं है, सुत तिय मित्रों से कैसे |
चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह कैसे रहे ||27||
महाकष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ जड़ देह संयोग |
मोक्ष महल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग ||28||
जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़ |
निर्विकल्प निर्द्वन्द आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो ||29||
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते |
करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते ||30||
अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी |
“पर देता है” यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि ||31||
निर्मल, सत्य, शिवं सुंदर है, अमित गति वह देव महान |
शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण ||32||
इन बत्तीस पदों से कोई, परमातम को ध्याते हैं |
साँची सामायिक को पाकर, भवोदधि तर जाते हैं ||33||